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मैं किसान हूँ
August 10, 2016
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एक रोटी का टुकड़ा कैसे चार लोगों का पेट पालता है,
एक फटे हुए कपड़े से कैसे सर्द रातों से लड़ा जाता है,
एक टूटी हुई छत कैसे साया देती है,
एक बंजर ज़मीन कैसे किसी की जान लेती है,
नहीं हो मालूम अगर तो चले आइयेगा,
मैं किसान हूँ ग़रीबी देखना है तो मेरे घर चले आइयेगा।
एक बेटी जो जवान होकर अब बूढ़ी हो रही है,
एक बेटा जो फाँसी के फंदे से गले लग रहा है,
एक बीवी जो सुहागन हो कर भी अभागन है,
एक घर जो आबाद हो कर भी यहाँ बर्बाद है,
नहीं है देखा कभी ऐसा घर तो चले आइयेगा,
मैं किसान हूँ बेबसी देखना है तो मेरे घर चले आइयेगा।
एक ज़िंदगी हूँ जो मौत से भी बद्तर है,
एक दुआ हूँ जो बद्दुआ से भी बढ़कर है,
एक मुसाफ़िर हूँ जो मंज़िल से नहीं मिलता है,
एक मज़ार हूँ जिसपर कोई दिया नहीं जलता है,
नहीं है देखी कभी ऐसी मज़ार तो चले आइयेगा,
मैं किसान हूँ बदक़िस्मती देखना है तो मेरे घर चले आइयेगा।
एक कर्ज़ कैसे पुश्त-दर पुश्त चला आता है,
एक मर्ज़ कैसे ठीक होकर भी रुला जाता है,
एक आह कैसे सुन कर अनसुनी कर दी जाती है,
एक उम्मीद जो ज़िंदा होकर हर रोज़ दफ़्न हो जाती है,
नहीं हो इल्म इनका तो चले आइयेगा,
मैं किसान हूँ बदनसीबी देखना है तो मेरे घर चले आइयेगा।
पुश्त-दर पुश्त- Generation after generation.
इल्म- Knowledge.
~सलमान फ़हीम
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