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श्रीदेवी के बाथटब में पत्रकारिता भी डूब गई
February 27, 2018
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भारतीय अभिनेत्री श्रीदेवी की दुबई के एक होटल में अचानक हुई मौत उनके लाखों फैंस के लिए एक ग़हरा सदमा थी.
ये ख़बर भारतीय मीडिया के लिए ये बेवजह का विवाद खड़ा करने का एक मौका भी बन गई.
पहले कहा गया कि उनकी मौत अचानक हृदयगति रुक जाने से हुई. ख़बर के साथ ही ये कंट्रोवर्सी थ्यौरी भी आ गई कि महज 55 साल की उम्र में अचानक किसी की मौत कैसे हो सकती है?
लेकिन सोमवार को जब दुबई पुलिस ने अपनी अधिकारिक रिपोर्ट में कहा कि श्रीदेवी की मौत दुर्घटनावश बाथटब में डूबने से हुई है तो इस ख़बर की भारतीय मीडिया में कुछ इस तरह रिपोर्टिंग हुई की मीडिया भी बाथटब के पानी में डूबी नज़र आई.
एक समाचार चैनल पर रिपोर्टर बाथटब में लेटकर रिपोर्टिंग करते नज़र आए. एक अन्य चैनल ने ग्राफ़िक्स के ज़रिए श्रीदेवी को बाथटब में लिटा दिया. एक राष्ट्रीय चैनल ने तो बाथटब में लेटी श्रीदेवी के पास शराब का प्याला भी रख दिया.
अटकले लगाईं जाने लगीं. श्रीदेवी ख़ुद गिरीं या गिराई गईं. मौत के राज़ तलाशे जाने लगे. लेकिन ये सब सिर्फ़ अटकलबाज़ी से ही किया गया.
हर ख़बर में सनसनी तलाशने का आदी भारतीय मीडिया श्रीदेवी की मौत की वजह तलाशने लगा. भारतीय न्यूज़रूम अटकलबाज़ी के अड्डे बन गए.
संपादक जिनका काम तथ्यों को पुख़्ता करना होता है बिना सूत्रों के ही कयासों को ऑन एयर करने लगे. टीवी स्क्रीन ग्राफ़िक्स और कयासों से रंग से गए.
सूत्रों के हवाले से ख़बर चलाने वाले मीडिया ने इस ख़बर में तो न कोई सूत्र तलाशा न कोई सूचना प्राप्त करने की कोशिश की.
जो भारतीय मीडिया ने किया उसे कहीं से भी पत्रकारिता तो नहीं ही कहा जा सकता. दरअसल किसी भी सेलिब्रिटी, राजनेता या बड़ी हस्ती के देहांत के बाद लोगों की इस बारे में जानने की दिलचस्पी होती है. ये दिलचस्पी बिलकुल जायज़ है. लोग अपने चहेते सेलीब्रिटी के जीवन के अनछुए पहलुओं को जानना चाहते हैं. वो उसकी मौत की वजह जानना चाहते हैं. मीडिया उन्हें जो भी कुछ बताएगा वो उस पर विश्वास कर लेंगे.
लेकिन क्या लोगों की दिलचस्पी का दोहन करना सही कहा जा सकता है? टीआरपी की चाह के जो परीणाम होंगे क्या हमने उस बारे में सोचा है?
दरअसल आज पत्रकारिता संस्थान अपने पत्रकारों के प्रशिक्षण में निवेश करने के बजाए सनसनीखेज ख़बरों पर ज़्यादा ध्यान दे रहे हैं. दर्शकों और पाठकों की संख्या ख़बर के हिट होने या फ़्लॉप होने का पैमाना बन गई है. सत्य और तथ्य संपादकों की नज़र और नीयत दोनों से दूर होते जा रहे हैं.
There’s no bottom in the barrel of the graceless.
— Farhan Akhtar (@FarOutAkhtar) February 26, 2018
लेकिन क्या हमें इस समय रुककर ये नहीं सोचना चाहिए कि इस तरह की रिपोर्टिंग का हमारे समाज पर क्या असर हो सकता है?
आज जब हर हाथ में मोबाइल है. बच्चों तक की कंटेंट तक पहुंच है तब क्या संपादकों को और ज़िम्मेदारी से काम नहीं करना चाहिए.
मसला सिर्फ़ चीज़ों के स्क्रीन पर फ़ूहड़ तक लगने का नहीं है. हां, बाथटब में लेटा रिपोर्टर फूहड़ लगता है. बाथटब पर बैठी एंकर फूहड़ लगती है. लेकिन ख़बरों के इस सस्तेपन को सिर्फ़ फूहड़ कहकर खारिज करने भर से काम नहीं चल जएगा.
May they let you rest in peace…. pic.twitter.com/stoWljWkbf
— vidya balan (@vidya_balan) February 26, 2018
हमें इससे आगे सोचना होगा. ग़लत ख़बर चलाने के गंभीर परिणाम हो सकते हैं ये बात संपादकों के दिमाग़ में डालनी होगी. संपादकों को अपने लिए कुछ मापदंड तय करने ही होंगे. और अगर वो ऐसा नहीं कर सकते, तो बाथटब में जो पानी बचा रह गया है उसमें डूब तो सकते ही हैं.
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