क़ाग़ज़-कलम
कागज़ कलम: शबाना बजारी
December 13, 2018
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ज़िन्दगी से भरे लम्हे या,
लमहों से भरी ज़िन्दगी,
ये हम पे रहा हमने चुने लम्हे,
या हमने चुनी ज़िन्दगी।
-शबाना बजारी
आँखे चकाचौंध कर गयी ये रोशनी की जगमगाहट,
काश दिलों में भी हमने दीये जलाए होते,
बड़ा बे असर हो रहा है इन पटाखों का शोर,
काश शोर से अपने अंदर के हैवनो को डराए होते,
ऊबता गए हम मिठाई की भरमार से,
काश थोड़ी सी मिसरी हम ज़ुबान में भी घोल आए होते,
शीकन पड़ गयी चेहरे पे झूठी मुस्कुराहट पहनकर,
काश थोड़ी सी सच्ची सी मुस्कुराहट हम चेहरे पर लाए होते,
ज़िन्दगी का दौर ना जाने कब ख़त्म हो जाए,
काश हम अपनो को अपने साथ साथ लाए होते।
-शबाना बजारी
वो ज़िन्दगी कितनी ख़ूबसूरत है जो औरों के काम आए,
अपना नामों निशाँ खो कर भी उसके ज़र्रे ज़र्रे में समाए
-शबाना बजारी
आइने से क्या पूछते हो हाल ए रुख़सार,
पूछना है तो दिल से पूछो,
इसमें दफ़्न है क़िस्से हज़ार
-शबाना बजारी
ज़िन्दगी के कुछ तक़ाज़े ऐसे संजीदा थे,
हमारी नादनियों ने दम तोड़ दिया।
-शबाना बजारी
सिमट कर भी बिखरा हुआ सा हूँ मैं,
हँस कर भी रुँआसा हूँ मैं,
बहती नदी सा होकर भी कुआँ सा हूँ मैं,
मशहूर होकर भी अनछुआ सा हूँ मैं,
ये कहते है इन सा हूँ मैं,
वो कहते है उन सा हूँ मैं,
कैसे कहूँ सब से एक इन्सान सा हूँ मैं -शबाना बजारी
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