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सिर पर मैला ढोने वाली ऊषा चोमर बनी मिसाल, मिला पद्मश्री
Image Credits: Facebook/Sulabh International
January 28, 2020
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71वें गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर पद्म पुरस्कारों की घोषणा की गई. 118 लोगों को पद्म श्री पुरस्कार से नवाजा गया है, इनमें से एक नाम ऊषा चोमर का है. ऊषा राजस्थान के अलवर जिले की रहने वाली हैं. कभी सिर पर मैला ढोने का काम करने वाली ऊषा की बदली हुई जिंदगी पूरी तरह से मोटिवेशनल स्टोरी है.
अपने लंबे सफ़र को याद करते हुए वो कहती हैं कि उन्होंने अपनी मां के साथ सात साल की उम्र में मैला ढोना शुरू किया था. दस साल की उम्र में शादी हुई और 14 साल की उम्र में गौना हो गया. ससुराल में सास, दो ननद, देवरानी और जेठानी के साथ मैला ढोना शुरू कर दिया.
उषा के अनुसार उनके समाज के लोगों के साथ बहुत छुआछूत हुआ करता था, अगर कभी प्यास लगती थी तो पानी भी ऊपर से पिलाया जाता था. ऊषा अपने पुराने दिन याद करते हुए कहती हैं कि मैला उठाने को गंदा काम माना जाता है, इसी कारण उन्हें तिरस्कार का भाव झेलना पड़ता था. अपने साथ हो रहे इस व्यवहार से वे टूट गई थीं और ये काम छोड़ना चाहती थीं, लेकिन मजबूरी छोड़ने नहीं दे रही थी. सुलभ शौचालय के संस्थापक बिंदेश्वर पाठक से मुलाकात के बाद उनकी जिंदगी बदल गई.
उन्हें तारीख़ तो याद नहीं है, लेकिन वो बताती हैं कि वो गर्मियों का मौसम था और वे मैला ढोने जा रही थी. बिंदेश्वर जी ने हमें रोका और कहा कि मेरी बात सुनो, हम सब घूंघट में थीं. मैंने सोचा पता नहीं कौन फ़ालतू में बात करना चाहता है और डर भी गए क्योंकि पराए मर्दों से हम बात नहीं करते थे. उन्होंने फिर टोका.
हमें बात करने का सलीका तो नहीं था और हमने सोचा नेता होंगे जो बिजली, पानी की बात करेंगे. हमने कहा अच्छा जल्दी बताओ हमें मैला ढोने जाना है. उन्होंने कहा कि ये काम क्यों कर रहे हो, कितने पैसे मिलते हैं. हमने कहा कि हमारे पुरखे सालों से ये काम करते आ रहे हैं हम कैसे छोड़ दें.
वो भावुक हो गए और कहा कि तुम्हारे घर का काम कैसे चल जाता है. फिर उन्होंने हमें समझाने की कोशिश की. हमने कहा कि आप चलिए और देखिए हम कैसे रहते हैं. वो आए और उन्होंने हमें दिल्ली आने का न्यौता दिया और कहा कि तुम लोग और कोई काम करना पसंद करोगे.
हमने कहा करेंगे लेकिन पैसे कितने मिलेंगे, उन्होंने कहा मैं तुम लोगों के लिए संस्था खोलूंगा और 1500 रुपए महीने दूंगा.
उन्होंने मैला ढोने वाली महिलाओं को साथ लेकर काम करने की योजना बनाई थी लेकिन कोई महिला समूह उनसे मिलने को तैयार नहीं हो रहा था. आखिर एक महिला समूह तैयार हुआ और महल चौक में ऊषा चोमर की अगुवाई में इकट्ठा हुईं. इस मीटिंग ने उनकी जिंदगी बदल दी. वे पापड़ और जूट के बिजनेस में आ गईं. इस काम में इतनी कमाई बढ़ी कि 2010 उन्होंने अलवर की सभी मैला ढोने वाली महिलाओं को अपने साथ मिला लिया.
उषा डॉ. बिंदेश्वर की संस्था ‘नई दिशा’ से अलवर में जुड़ीं और वहां काम करना शुरू किया.
ऊषा बताती हैं कि ये सब कुछ बिंदेश्वर पाठक की वजह से संभव हुआ है. अब अलवर में कोई महिला मैला नहीं ढोती. वे कहती हैं कि जिस समाज में किसी को छूना भी अपराध था, आज वहीं के लोग उन्हें घरों में बुलाते हैं. शादी और आयोजनों में उनका विशेष स्वागत होता है. काम के चक्कर में पांच देश घूम लिए हैं.
ऊषा चोमर कई बार प्रधानमंत्री मोदी से भी मुलाकात कर चुकी हैं. सम्मान के लिए चुने जाने पर उन्होंने पीएम मोदी का आभार जताया. उषा मानती हैं कि पढ़ाई जीवन के लिए सबसे अहम हैं. उनके तीन बच्चे हैं, दो बेटे नौकरी करते हैं और लड़की बीए कर रही है जो अपनी मां की तरह एक अलग मुक़ाम हासिल करने का ख़्वाब रखती है.
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